-अजय प्रताप सिंह विगत तीन माह से विश्व पटल पर तीसरे विश्व युद्ध की आहट को साफ महसूस किया जा सकता है। जिसका कोरोना जनक चीन ह...
-अजय प्रताप सिंह
विगत तीन माह से विश्व पटल पर तीसरे विश्व युद्ध की आहट को साफ महसूस किया जा सकता है। जिसका कोरोना जनक चीन ही फिर से खलनायक बनकर उभरा है। वैसे तो कोरोना की कुत्सित इरादों के लिये उत्पत्ति अब विश्व से छुपी नहीं रही, इसकी उत्पत्ति के सिद्धांत पर 80 के दशक में इस विभत्स सोच से विचलित एक असंतुष्ट चीनी वैज्ञानिक ने इसकी उत्पत्ति को एक जैविक हथियार के रूप में प्रतिपादित किये जाने की सूचना विश्व को देकर खलबली मचा दी थी। लेकिन शीतयुद्ध काल में तब दो धडों में विभक्त दुनिया ने चीनी वैज्ञानिक को अधिक गंभीरता से नहीं लिया था। जिसका फल आज कई लाख निरपराध की जान देकर विश्व को कीमत चुकानी पड़ी है। सबसे अधिक लगभग दो लाख मौतें तो अकेले सुपर पावर अमेरिका में ही हो गयीं हैं। विश्व अर्थव्यवस्था तहस नहस हो गयी है। तो योजनाओं के क्रियान्वयन की गति खाली खजानों ने रोक दी है। काश उस समय ही इस महत्वाकांक्षी देश पर विश्व बिरादरी आज की ही तरह एक जुट हुई होती तो यह भस्मासुर आज इतना शक्तिशाली और विकराल न हुआ होता, कि दुनिया को महा विनाशक युद्ध के मुहाने तक ले जाने की इसकी सार्मथ्य होती।
हैरानी की बात यह है कि जब हम शीतयुद्ध काल की अवधि के विश्व पटल की राजनीतिक और सामरिक दुनिया पर दूष्टि पात करतें हैं तो पाते हैं कि उस समय की दुनिया में निषिद्ध विचारों और संस्कारों तथा संस्कृतियों का जनक, पोषक और संरक्षण दाता अमेरिका रहा है तो आज का रुस उस अवधि में न्याय का प्रहरी होने का सौभाग्य प्राप्त करने वाला विश्व को शांति और स्थायित्व देने वाला दूष्टि गोचर होता है।
दुनिया में आज जितनी भी बुराईयां और दुष्टतायें हैं सभी का जन्म दाता अमेरिका ही रहा है। अमेरिका और पूरी दुनिया के अस्तित्व के लिये आज खतरा बन चुका चाहे चीन हो या उसका लंगोटिया यार उत्तर कोरिया, या ईरान सभी के सभी विगत में अमरीकी खेमे के तरकश के तीर रहे हैं जिनका उस समय में विश्व शांति के पुरोधा रुस के खिलाफ लगातार प्रयोग होता रहा है। यही नहीं आज पूरी दुनिया के सामने दूसरा बड़ा खतरा इस्लामिक आतंकवाद का जनक भी अमेरिका ही रहा है। जिसने अफगानिस्तान में रुसी सेनाओं के खिलाफ विश्व पटल पर पहली बार अमेरिका के ही संरक्षण में पदार्पण किया था। यही प्रयोग आज विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बन गया है। जिसमें राष्ट्रीयताओं तक गौण होकर रह गयीं हैं। यह ऐसा भस्मासुर है जिसका स्थायी इलाज किसी के पास दिखाई नहीं देता, क्योंकि इसमें राष्ट्र नहीं धर्म के प्रति निष्ठायें हैं जो लाइलाज कैंसर के समान ही है।
इतना सब कुछ करते रहने के बाद भी ढीठ अमेरिका बडी बेशर्मी के साथ खुद को प्रजातंत्र और विश्व शांति का रहनुमा प्ररिभाषित करने में समय समय पर सफल रहा है। चीन जो आज विश्व की सबसे बडी अर्थव्यवस्था और फौजी ताकत बनने में इतना सफल हो गया कि उसने अपने जैविक बाप के अस्तित्व को धता बताने में विलंब नहीं किया। तो इसके पीछे अमेरिकी नेतृत्व की विवषता और बेबसी साफ झलकती है। अमेरिका आज इस हैसियत में नहीं बचा है कि वह चीन से अपने बलबूते पर दो दो हाथ कर सके। चीन को चाइना सी में आंखें दिखाने के बाद भी उसकी इतनी भी हिम्मत नहीं हो रही कि वह चीन पर पहला वार कर सके। अपने द्वारा पोषित और संरक्षित चीन को मटियामेट करने के लिए वह भारत और अन्य आसियान देशों की ओर देख रहा है। जबकि इन सारे आसियान में मिलकर भी इतनी सार्मथ्य नहीं कि वे चीन का बाल बांका कर सकें।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि चीन से बूरी तरह प्रताड़ित ये सभी आसियान देश अमेरिका पर नहीं वरन अपनी स्थायी मुक्ति के लिए भारत की और आस भरी नजरों से देख रहे हैं। क्योंकि ये सारे देश अमेरिका की व्यापारिक व सामरिक लाभ कमाने की नीति से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके हैं। दूसरे अमेरिका नीत नाटो संगठन में आपसी खींचतान व राष्ट्रीय हितों की रक्षार्थ स्वार्थ चरम पर हैं जबकि यूरोपीय संघ में विघटन ने भी अमेरिकी खेमे को कमजोर करने में कसर नहीं छोड़ी है। जिससे चीन के रणनीतिकार अच्छे से जानते हैं। यही कारण है कि चीन का रवैया अडियल बना हुआ है।
भारत और चीन के बीच जारी एल ए सी गतिरोध या सीधे शब्दों में कहें तो अघोषित युद्ध के बीच जब भारतीय फौज सामरिक महत्व की चोटियों पर निर्णायक बढत लेकर समूचे तिब्बत की निगहबानी करने की स्थिति में आ पहुंची हैं तो भारतीय कूटनीति को नयी धार मिल पहली बार मिल गयी है जिससे वह अपनी शर्तों पर बात करने की स्थिति में आजादी बाद पहली बार आया है। विश्वास है डोकलाम के शहीदों के बलिदान को भारतीय राजनीतिज्ञ व्यर्थ न जाने देने की अपनी प्रतिबद्धता पर खरे उतरेंगे। इस बीच आंशिक सफलता तब हमें मिली जब मास्को विदेश मंत्रियों की सबमिट में चीन के विदेशमंत्री अपने भारतीय समकक्ष एस जयशंकर से वार्ता की गुजारिश करते नजर आये। वार्ता हमारे परंपरागत मित्र रुस की अनुशंसा पर हुई भी। विश्वास बहाली और चरणबद्ध तरीके से सेनाओं की वापसी पर सहमति बन भी गयी है। लेकिन पहली बार भारतीय राजनयन चौकन्ना नजर दिखता है वह झांसे में आने को तैयार कतई नहीं लगता। इन दोंनो परंपरागत शत्रुओं की हर गतिविधि पर दुनिया की नजर टिकी हुई है।
आज के वैश्विक हालत पर चीन के रणनीतिकारों की पैनी नजर ने मौजूदा खतरे का आंकलन करके ही जयशंकर से वार्ता की पेशकश अस्ल में खतरनाक योजना का हिस्सा लगता है जिसमें उन्होंने भांप लिया है कि चीन के अस्तित्व के लिये वर्तमान समय में भारत का राष्ट्रवाद खतरा है न कि अनिच्छुक अमेरिका। घाघ चीन जानता है कि भारत से वर्तमान समय में वार्ता कर जहां वह भारत के कट्टर राष्ट्रवाद के घावों पर मरहम लगाने में सफल हो जायेगा, वहीं अमेरिका को वैश्विक शक्ति से पदमुक्त करने के लिए उसे समय भी मिल जायेगा। आसान शब्दों में कहा जाय तो चीन को अपनी रणनीति की भूलों का अह्सास हुआ है। जहां पूरी दुनिया उसकी दुश्मन बन बैठी है। अतः भारत से बातचीत का फिलहाल उसे भले ही सामरिक लाभ न मिले, लेकिन वह विश्व जनमानस को शांत करने में अपनी भलाई देख रहा है। जिससे उसके सुपरपॉवर बनने को समय मिल सके।
वहीं रुस की पहल पर हुई इस भारत चीन विदेश मंत्रियों की बैठक का दूरगामी परिणाम विश्व के लिये और घातक फल लेकर आने वाला है जब चीन आज से कई गुना ताकत जुटाने की हसरत पाले बैठा है। साफ है कि शांति वार्ता के पीछे घूणित अमंगल कारी सोछवच वाले चीन रुपी भस्मासुर को अब तबाह न किया गया तो फिर वह सभी को निगल जाने की सामर्थ्य ही जुटाएगा, जो भविष्य के गर्भ में छुपा है।
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