अधिनायकवाद क्या होता है? क्या भारत अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है? क्या अधिनायकवाद को भारत सह सकता है? आज हम इन्हीं प्रश्नों के उत्...
अधिनायकवाद क्या होता है? क्या भारत अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है? क्या अधिनायकवाद को भारत सह सकता है? आज हम इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्न करेंगे।
वर्तमान समय में अधिनायकवाद उस शासन प्रणाली को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति विद्यमान नियमों व मूल्यों की अवहेलना करते हुए लाठी के बल पर शासन करता है, लोकतांत्रिक मूल्य दिन – प्रतिदिन उपेक्षित होते जाते हैं, व लोगों के संवैधानिक अधिकार संकुचित होते जाते हैं।
अधिनायकवाद में किसी एक व्यक्ति के पास ही देश या संगठन चलाने की पूर्ण शक्ति होती है, फलस्वरूप उसी का निर्णय अंतिम होता है और वह उससे समझौता नहीं करता। जिसका दुष्परिणाम यह होता है कि उसके हटी निर्णय से देश वह समाज का बंटाधार हो जाता है।
कोई भी व्यक्ति स्वयं में पूर्ण नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में उसका निर्णय सभी के लिए स्वास्थ्य नहीं हो सकता। जबकि अधिनायकवाद मे व्यक्ति विशेष का निर्णय ही अंतिम निर्णय होता है।
आज हम भारत की स्थिति पर नजर डालें तो हमें भारत कुछ-कुछ ऐसा ही दिखाई देता है। आज भारत में योग्य नेताओं की कमी है । विपक्ष एकदम धराशाई है। विपक्ष की अकर्मण्यता से ऊबकर जनता ने जिन्हें शासन का मौका दिया वे स्वयं को अधिनायक समझ बैठे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि विपक्ष में कोई मजबूत नहीं है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक है। यदि देश योग्य नेताओं को जन्म नहीं दे सकता, उसका संवर्धन नहीं कर सकता तो यह देश में जनता की अक्षमता है। योग्य समाज से ही योग्य नेता निकलते हैं, योग्य जनता ही योग्य नेता का चुनाव कर सकती है। लेकिन लोकतंत्र में यदि जनता अशिक्षित व अविवेकी होगी तो अयोग्य लोग देश के सर पर चढ़कर बैठ जाएंगे जो जनता के संवैधानिक मूल्यों को ही रौंद देंगे।
बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि देश अधिनायकवाद की ओर बढ़ता जा रहा है। 2014 में भारत लोकतांत्रिक देशों की सूची में 27 वें स्थान पर था वहीं आज भारत 53 वें स्थान पर पहुंच गया है। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि हम अधिनायकवाद की ओर तेजी से जा रहे हैं, जो लोकतंत्र के लिए स्वस्थ संकेत नहीं है।
आज भारत के नागरिक को किस मात्रा में संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। सरकारें तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर भी मानो प्रतिबंध लगा दी हैं। सरकारें तय करने लगी है कि लोग क्या लिख सकते, क्या कह सकते हैं, कहां जा सकते हैं, क्या पूछ सकते हैं। इस प्रकार का नियंत्रण तो सर्वसत्तावाद मे ही होता है।
सरकारें NSA व UAPA का अंधाधुंध प्रयोग कर रही हैं, जिस पर माननीय न्यायालयों ने भी आपत्ति जताई है और बार-बार सरकारों को फटकार भी लगाई है। फिर भी सरकारें आवाज दबाने के लिए ऐसे कानूनों का इस्तेमाल कर रही हैं तो यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।
लोकतंत्र में सरकार जनता की जनता के द्वारा व जनता के लिए होती है। सारी संप्रभुता जनता में विद्यमान होती है। लोकतंत्र में लोक यानी जनता पहले होता है। तंत्र यानी सिस्टम बाद में, परंतु यह बात नेताओं को समझ में नहीं आती है। वे स्वयं संविधान व संवैधानिक मूल्यों मे अशिक्षित होते हैं। वे इन मूल्यों को भली भाँति नहीं जानते। यही नेता ऊंचे पदों पर पहुंच कर लोकतंत्र व संवैधानिक मर्यादाओं को मिट्टी में मिलाते हैं।
संविधान हमें शांतिपूर्वक धरना, प्रदर्शन, अभिव्यक्ति की आजादी, भ्रमण की आजादी देती है, लेकिन इन संवैधानिक अधिकारों का निरंतर दमन होता जा रहा है; जिससे लगता है कि देश अधिनायकवाद की ओर बढ़ता जा रहा है।
लेकिन यह भी सत्य है कि देश कभी अधिनायकवाद को लंबे समय तक सह नहीं सकता। इतिहास साक्षी है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी ने संविधान व उसके मूल्यों को बदलने की कोशिश की लोगों के संवैधानिक अधिकारों को कुचलने का पूरा प्रयास किया गया, लेकिन देश ने उसे स्वीकार नहीं किया। यह देश अधिनायकवाद को स्वीकार नहीं कर सकता; लेकिन इसके लिए देश को जागृत होना, होगा शिक्षित होना होगा, संविधान, संवैधानिक अधिकार व लोकतंत्र को जानना होगा। लोगों को लोकप्रियता और योग्यता के अंतर को समझना होगा। यदि देश इन मूल्यों को नहीं जान सकेगा तो कभी भी अपना अधिकार नहीं प्राप्त कर सकेगा।
जब देश अपने संवैधानिक अधिकारों को जानेगा उसे प्राप्त करने के लिए संघर्षरत होगा तभी देश वास्तव में जनतांत्रिक होगा व अधिनायकवाद से मुक्त होगा।
बागीश धर राय
( इतिहास शोधार्थी)
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