27 सितंबर 2025 मुंबई। अरे भाई...भाई,सुन न, 90 का दशक, वो भी मुंबई में! वो भी क्या ज़माना था जब टपोरी भाषा और टपोरीगिरी ने शहर की...
27 सितंबर 2025
मुंबई। अरे भाई...भाई,सुन न, 90 का दशक, वो भी मुंबई में! वो भी क्या ज़माना था जब टपोरी भाषा और टपोरीगिरी ने शहर की गलियों को ऐसा रंग दिया कि हर गली में एक ‘भाई’ और हर नुक्कड़ पर एक ‘खतरनाक’ स्टाइल मारता हुआ नौजवान मिल ही जाता। टपोरीगिरी सिर्फ़ एक स्टाइल नहीं था, यार, वो तो एक मूड था, एक मस्ती थी, एक जिंदगी जीने का तरीक़ा था! तो चल, थोड़ा टाइम मशीन में बैठकर उस दौर में झांकते हैं
90 के दशक में मुंबई की गलियों में अगर आप बिना ‘भाई’, ‘रापचिक’, ‘झकास’, या ‘खतरनाक’ बोले चले गए, तो समझ लो आप मुंबई में थे ही नहीं! टपोरी भाषा का जादू ऐसा था कि आम बात को भी मसालेदार बना दे। मान लो, कोई दोस्त बाइक पर आया और बोला, “क्या, भाई, किधर को चला?” तो जवाब मिलता, “अरे, बस रापचिक माल देखने जा रहा हूँ, तू भी चल!” अब ये ‘माल’ कोई ज्वेलरी नहीं, बल्कि टपोरी कोड में कुछ और ही होता था, समझे ना । ये भाषा बॉलीवुड से भी खूब प्रेरित थी। अनिल कपूर की “झकास!” चीख और मिथुन के डॉयलाग के साथ साथ संजय दत्त का “खतरनाक!” अंदाज़ टपोरी भाषा के लिए ऑक्सीजन का काम करता था। गुलशन ग्रोवर और रजा मुराद जैसे विलेन भी टपोरी डायलॉग्स में जान डालते थे। “अपुन को तो बस एक मौका चाहिए, फिर देख कैसे सीन पलटता है!” – ये डायलॉग सुनकर तो गली का हर लड़का खुद को मोगैंबो समझने लगता था। और हाँ, टपोरी भाषा में गालियाँ भी थीं, लेकिन वो गालियाँ नहीं, प्यार का इज़हार थीं! जैसे, “साला, तू तो एकदम टकाटक है!” ये सुनकर सामने वाला शरमाता नहीं, बल्कि सीना चौड़ा करके बोलता, “अरे, अपुन तो बिंदास है, भाई!”
टपोरीगिरी सिर्फ़ बोलने का ढंग नहीं, बल्कि जीने का स्टाइल था। टपोरी का लुक तो ऐसा कि मानो फैशन डिज़ाइनर ने गलती से सारी रोब एक साथ डाल दी हो। चमकीली शर्ट, जिसके बटन खुले हों ताकि बनियान की झलक दिखे, टाइट जीन्स, और अगर जूते नहीं मिले तो कोल्हापुरी चप्पल! ऊपर से माथे पर तिरछा टोपी या फिर बालों में इतना तेल कि मक्खियाँ भी फिसल जाएँ। और हाँ, गले में सोने की चेन, भले ही वो असली हो या नकली, लेकिन चमक ऐसी कि सूरज भी शरमा जाए।
टपोरी का चलना भी अपने आप में एक कला था। कंधे हिलाते हुए, एक तरफ़ झुके हुए, जैसे अभी-अभी किसी फिल्म के सेट से निकलकर आए हों। और अगर जेब में पैसे नहीं थे, तो भी टपोरी का कॉन्फिडेंस ऐसा कि सामने वाला सोचे, “लगता है, ये भाई किसी बिजनेसमैन का बेटा है! 90 के दशक में टपोरीगिरी का असली मज़ा था गली-मोहल्लों में। मान लो, कोई टपोरी अपने दोस्तों के साथ नुक्कड़ पर खड़ा है, चाय की टपरी पर गप्पें मार रहा है। बात शुरू होती थी क्रिकेट से, फिर बॉलीवुड, और आखिर में पहुँचती थी ‘लव स्टोरी’ पर। “अरे, वो सामने वाली गली की शीला, भाई, उसने मुझे लाइन दी!” अब शीला ने सचमुच लाइन दी हो या ना दी हो, टपोरी की कहानी में तो वो माधुरी दीक्षित से कम नहीं होती थी।और अगर कोई टपोरी को टक्कर देने की कोशिश करता, तो बस एक डायलॉग, “अपुन को टेंशन मत दे, वरना इंजेक्शन दे दूँगा!” सुनकर सामने वाला हँसते-हँसते भाग जाता। टपोरीगिरी में मारपीट कम, मस्ती ज़्यादा थी। 90 के दशक में बॉलीवुड ने टपोरीगिरी को और चमकाया। ‘रंगीला’ का मुन्ना (आमिर खान) हो या ‘सत्या’ का भिकू म्हात्रे (मनोज बाजपेयी), इन किरदारों ने टपोरी को हर घर में पहुँचाया। मुन्ना का “हाय, रापचिक माल!” और भिकू का “मुंबई का किंग कौन? भिकू म्हात्रे!” सुनकर तो गली का हर लड़का अपने आप को हीरो समझने लगता था।
और सिर्फ़ हीरो ही नहीं, विलेन भी टपोरी स्टाइल में बोलते थे। “बड़े बड़े शहरों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं,” गब्बर का ये डायलॉग भले ही 70 के दशक का था, लेकिन 90 में भी टपोरी इसे अपने स्टाइल में यूज़ करते थे।बआज भले ही मुंबई बदल गई हो, मॉल्स और मेट्रो ने गलियों को थोड़ा पीछे धकेल दिया हो, लेकिन टपोरीगिरी का जादू अभी भी बाकी है। आज भी कोई दोस्त मिले और बोले, “क्या, भाई, एकदम झकास लग रहा है!” तो मन में वही 90 का वाला वाइब आ जाता है। टपोरी भाषा और टपोरीगिरी मुंबई की धड़कन थी, है, और रहेगी।
तो भाई, अगली बार जब तू मुंबई की गलियों में निकले, थोड़ा टपोरी स्टाइल मारना, बोलना, “अपुन तो बिंदास है!” और देख, कैसे सारा सीन पलट जाता है!
- इंद्र यादव - स्वतंत्र लेखक,भदोही ( यूपी )
indrayadavrti@gmail.com
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